न हो उलझन तुम्हें,मैं दर्द अपना कह नहीं सकती
तुम्हारे बिन मैं सुख से एक पल भी रह नहीं सकती।
थेजबतुम साथ तो जीवन में इक उल्लास रहता था
भले मौसम कोई भी हो सदा मधुमास रहता था
तुम्हारे साथ रह कर भी सिहर जाती थी मैं अक्सर
चले जाओगे सरहद पर मुझे एहसास रहता था
तुम्हारी संगिनी होकर भी तुमसे दूर होनेकी
व्यथाआँखों से ढ़ल कर आँसुओं में बह नहीं सकती।
तुम्हारे बिन मैं पहले सी न सजती हूँ सँवरती हूँ
मगर माँ का मैं पहले से अधिक अब ध्यान रखती हूँ
तुम्हारा लाड़ला जब तुमसे मिलने को मचलता है
तुम्हारा चित्र दिखला कर तुम्हारी बात करती हूँ
न पड़ जाऊँ मैं उनके सामने कमज़ोर थोड़ी भी
हूँ मुरझाई हुई इक बेल फिर भी झह नहीं सकती
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तुम्हें सरहद पे घर की ओर से निश्चिंत रहना है
तुम्हें सैलाब बन कर शत्रु पर पुरज़ोर बहना है
तुम्हें रखना है अपना हौसला चट्टान सा हरदम
मेरे सिंदूर की ताक़त का तुमसे आज कहना है
न आये राष्ट्र पूजा में कभी किंचित कमी कोई
ये संयम की शिला अविचल रहेगी ढह नहीं सकती