तुम्हें क्या
अगर मैं देता हूँ अपना यह गीत
उस बाघिन को
जो हर रात दबे पाँव आती है
आस-पास फेरा लगाती है
और मुझे सोते सूँघ जाती है
वह नींद, जिस में मैं देखता हूँ सपने
जिन में ही उभरते हैं सब अपने
छन्द तुक ताल बिम्ब
मौतों की भट्ठियों में तपाये हुए,
त्रास की नदियों के बहाव में बुझाये हुए;
मिलते हैं मुझे शब्द आग में नहाये हुए।
और तो और यही मैं कैसे मानूँ
कि तुम्हीं को वधू, राजकुमारी,
अगर पहले यह न पहचानूँ
कि वही बाघिन है मेरी असली माँ?
कि मैं उसी का बच्चा हूँ?
अनाथ वनैला...
देता हूँ उसे
वासना में डूबे, अपने लहू में सने,
सारे बचकाने मोह और भ्रम अपने-
गीत, मनसूबे, सपने
इसी में सच्चा हूँ :
अकेला...
तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...
नयी दिल्ली, 21 जुलाई, 1968