तुम्हें याद है पिछली बार हम कब ठिठके थे अपने ही द्वार पर,
कब खोली थी साँकल अपने-अपने मन की
कब बज उठे थे कुछ शब्द घण्टियो की तरह
और तुम लड़खड़ाए बिना ही धमनियों में रक्त की तरह घर में घुस आए थे,
छोड़ो, जाने दो, अपने प्रेमिल चेहरे को दीवारों पर चिपकने दो इश्तिहार की तरह
कि प्रेम का घोषणा-पत्र रोज़ पढना ज़रूरी है किसी अख़बार की तरह
जहाँ घटनाओं की तरह ख़बरें दर्ज होती चलती हैं / और हम
बाँचते हैं रोज़ चश्मा चढ़ाए,
मैं ये चश्मा नहीं उतारना चाहती / कि मुझे धुँधली हुई इबारतो को फिर से तलाशना है,
मैं फिर से पढ़ना चाहती हूँ वह पन्ना/ जहाँ छोड़ आई थी अपना करार और अपने उदास होने की वजहें,
गुत्थमगुत्था हथेलियों की झिर्री से आती हवा को आज़ाद करते हुए तुमने पूछा था / क्या हम फिर से पुनर्नवा हो सकते हैं,
हम फिर-फिर फूलों को खिलते देखकर ख़ुश हो सकते हैं / कि क्या तुम अब भी चूहों को बिल में घुसते देखकर तालियाँ बजा सकती हो,
जब चाहो कुछ दिन के लिए घर से लापता हो सकती हो,
हल्के अन्धेरे में किसी शाम प्रीत विहार के फुटपाथ पर बैठकर कसाटा खा सकती हो,
बेख़ौफ़ हाथ थामकर जनवरी की धुँध में गुम होने को औपन्यासिक कथानक से जोड़ सकती हो,
मैंने चुपचाप थामा तुम्हारा हाथ और मैंने देखा / हम फिर से अपने द्वार पर खड़े थे
और घण्टियों से झरते शब्दों को तुम सहेजने में जुट गए..।