तुम्हे पता है?
कितने पर्वत पार किये हैं धैर्य संजोकर
कितने सागर पी डाले हैं इंतज़ार के,
कितने बादल हुए धूसरित आशाओं के
कितने मौसम पतझड़ बन बीते बाहर के।
कितने तट उदास आंखों में स्वप्न सजाए,
कितने लहर समुच्चय लौटे हैं पथराए।
कितने शंख सीपियाँ विह्वल हो छितराए,
कितने मोती नहीं सीप के बाहर आए।
कितने रेत कणों को जल ने सिक्त किया है?
कितने पनघट को मन घट ने रिक्त किया है?
कितने ही मधु के वन सज धज कर फैले?
कितने मधुकण ऐसे , मन को तिक्त किया है?
तुम्हे पता है किंतने सागर सूख गए हैं?
इन नैनो में तुम्हें तरंगित नही देख कर,
तुम्हे पता है कितने सावन बीत गए हैं?
मन झूले में तुम्हें उमंगित नही देख कर।
तुम इंद्रधनुष बन कर आओ पर्वत लहकेगा,
तुम लहरों में इतराओ सागर भी बहकेगा।
तुम वर्षा बन कर प्रेम भवन में आ जाओ,
हर मौसम मुस्कान लुटा कर महकेगा।।