तुम्हारा लौह चक्र आया!
कुचल चला अचला के वन घन,
बसे नगर सब निपट निठुर बन,
चूर हुई चट्टान, क्षार पर्वत की दृढ़ काया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!
अगणित ग्रह-नक्षत्र गगन के
टूट पिसे, मरु-सिसका-कण के
रूप उड़े, कुछ घुवाँ-घुवाँ-सा अंबर में छाया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!
तुमने अपना चक्र उठाया,
अचरज से निज मुख फैलाया,
दंत-चिह्न केवल मानव का जब उस पर पाया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!