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तुम आओगे कभी / अर्चना कुमारी

तुम्हारे रास्तों पर
आंख गड़ाए मन
अ€सर समझाता
कि वो तो रोज जाता
और लौट आता है

इंतजार की संकरी पगडंडियां
सड़कों की चौड़ाई नहीं जान पाती
और नहीं जानती
दूरियां कैसे तय होती होगी किलोमीटर से
कैसे घंटों से गुणा-भाग कर
कोई स्टेशन याद आता है

सरसों के पीले फूल
और सावन की हरियाली
ऋतु चक्र की सुन्दरता है
बेमौसम बरसी बारिशें
इंतज़ार की कशिश भरी खलिश

कठिन है चेहरा बनाना ख्वाहिशों का
खतों को लापता रखना
और धड़कनों में आहटों के गीत सुनना
बेतार के तार से महसूसना तुम्हें

मैंने मेघों से कुछ नहीं कहा
अलकापुरी का ज़िक्र भी नहीं किया
उन्हें तुम्हारे देश जाना था
बरस गयी यही कहीं पास में
रास्ते डूब गये
पगडंडियां खेतों से जा मिली
लेकिन बचाए रखी है आहट मैंने
तुम आओगे किसी मुझ तक
मुझे मालूम है...