तुम एक बार फिर मेरी ओर निहारो।
इस बार तुम्हें नूतन ही दृष्टि मिलेगी,
नीराजन बन अभिनव ही सृष्टि खिलेगी;
सच कहता हूँ, जो अब तक नहीं हुई थी,
अबके सावन में ऐसी वृष्टि मिलेगी;
दर्शन तो सम्मुख हों, तब दृश्य बिचारो
अब निर्मल-जल भर है, सेवार नहीं है,
लहरें चोटी पर हों, वह ज्वार नहीं है;
तूफान बँधे कलरव की स्वर-लिपियों में,
सागर तो है, पर हाहाकार नहीं है;
अब एक बार ऐसे में नाव उतारो।
साँसत की धूली थी, यह नभ धूमिल था,
आँधी में आँख खुली रखना मुश्किल था;
अचरज क्या, तुम जो लौट गए इस पथ से
तब ऐसा शरत्-सुहास न मलयानिल था;
अब आओ, इस सूने में पाँख पसारो!