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तुम जो कंचन हो, मैं जो रजकन हूँ / वीरेंद्र मिश्र

तुम जो कंचन हो, मैं जो रजकन हूँ,
तुम जिसके तन हो, मैं उसका मन हूँ,
टुकड़े कर लो तुम, मेरे मुखड़े के
फिर भी देखोगे, मैं तो दर्पण हूँ ।