तुम तृषा के नीर-पानी,
लोकगाथा की कहानी !
हो निकट तुमसे लगा यह
चित्त स्थिर, ध्यान हो तुम,
तुम तुमुल में ज्यों अलौकिक
सोम के मधुगान हो तुम;
तुम नहीं तो क्या हृदय यह,
प्रेम का आधार तुम हो,
झूठ क्या तुमसे कहूँ मैं
यह निखिल संसार तुम हो !
कुछ नया क्या कह रहा मैं,
सब लगीं बातें पुरानी ।
वाक् सोये, तुम मिले तो;
चेतना की मूर्छना हो!
गूंज में तुम व्यक्त होते,
इन्द्रियों की अर्चना हो!
एक नीला रंग मधुमय
पुतलियों पर तैरता-सा,
दौड़ ऊष्णक पास आया
बर्फ का ले कर कुहासा;
कल तलक जीवन खुला था,
आज लगता है पिहानी ।