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तुम नहीं पहचान पाओगे / महेन्द्र भटनागर

एकरसता, एकस्वरता
बन गया है नाम जीवन का,
विषैले पन्नगों से बद्ध
मानों वृक्ष चंदन का !

सुबह होती
उदासी की विकल किरणें लिए,
अभावों के धधकते सूर्य की
आकुल विफल किरणें लिए !
तन श्लथ अलस-आहत
विरागी प्रेत-सा मन श्लथ
विगत विक्षत,
दिवस विकलांग-सा कंपित
विखंडित रथ लिये
सुनसान बीहड़ से
असह चिर वेदना का भार ले
संध्या निशा के गर्त में
जब डूब जाता है
तुम नहीं पहचान पाओगे
अभागा प्राण कितना ऊब जाता है !

रात आती है
कि मानों निठुर छलना
बन वधू साकार आती है,
रँगीले झिलमिलाते
स्वप्न परदों से
नवेली झाँक कर
सौगात तीखी वंचना की
गोद में बस डाल जाती है !
अछूती भावनाएँ तरल लहरों-सी
कड़ी चट्टान से टकरा
दरद का ज्वार लाती है !

बीतता है इस तरह जीवन
लिए बस
एकरसता एकस्वरता का
करुण संसार,
दुर्लभ —
मूच्र्छना संगीत,
पुलकित स्वर,
सुवासित हर्ष,
इन्द्रधनुषी प्यार !