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तुम न पूछो ये मुझका / अमरेन्द्र

तुम न पूछो ये मुझको कहाँ ले चले
होंगे हम तुम जहाँ, बस वहाँ ले चले।

कब तलक कोई सहमे, डरे से मिले
जब मिले, दोेनों अनजाने, ऐसे मिले
उस दिवस का ही क्या, उस कमल ही का क्या
प्यार के दिन चढ़े और कमल न खिले
कुछ भी दुनिया से क्या लेना-देना हमें
जो हमारे लिए बस धुआँ ले चले।

अजनबी राह हो, अजनबी देश हो
कुछ भी हो, प्यार लेकिन नहीं शेष हो
खोज लेंगे वह दुनिया कहीं न कहीं
मन, समुन्दर जहाँ, रूप, राकेश हो
वह कहाँ है मुझे भी पता कुछ नहीं
अब, जहाँ ये जमीं-आसमां ले चले।

बस चले ही चलो, साँस के चलने तक
काठ की इस मूर्ति के आग में जलने तक
रौशनी में नहाते रहे दोनों मन
मोम की देह क्षण-क्षण गले, गलने तक
जो न मुड़कर कभी पीछे आँखें करे
मंजिलों तक वही कारवां ले चले।