तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,
मैं हँसने की जड़ खोजूँ तो वह हँसने का फल होता है,
हँसते हो जाने कैसा सा,
बिखर-बिखर पारा झरता है।
स्वयं हार जाता हूँ, देखा,
मुँह से अंगारा झरता है।
तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,
हँसने से मेरे शापित बन्द हरे होते हैं,
ज्यों ज्यों मैं खाली करता हूँ,
त्यों त्यों छन्द भरे होते हैं।
हँसो नहीं मुँह कहीं तुम्हारा,
क्रूर चाँदनी लूट न लेवे।
जिसे मिलन देने आये हो,
वह बिछड़न की छूट न लेवे।
हँसते हो वर्षा होती है;
हँसते शरद लौट आती है,
हँसते थर-थर शिशिर पनपता,
हँसने पर वसन्त गाती है।
अब न हँसो ग्रीष्म दौड़ेगा,
सुनने, ओ वाणी कल्याणी,
युगों-युगों हँसती आई हो,
हरी-हरी होकर गीर्वाणी।
तुम हँसती हो मेरा गिरि पर चढ़ना ही निष्फल होता है।
तुम न हँसो, हँसने से जालिम धोखा और सबल होता है,
रचनाकाल: खण्डवा, फरवरी-१९५६