प्रिय!
तुम्हारी कविता ही
सच्ची कविता है
इसमें नहीं हैं चमत्कार शब्दों के
फिर भी
यह देती है अर्थ
कई अरचित शब्दों को
भावों की गर्मी के बीच
ठिठुरती है यह
पर इसमें
बेभाव बिखरने का साहस है।
तुम बोते हो अक्षर को
गेहूँ के दानों संग
और शब्दों की फसल
झूमती है
जमीन के कागज पर।
फसल काट लेते हैं वे
जिनके पास
दरांती है बातों की
और भंडारण की सुविधाएँ।
लेकिन
फिर से तुम ही
करते हो संपादान
आटा मिल के दो पाटों में
पिसकर
घिसकर।
छन-छन करके गीत
चले जाते हैं छनकर
और तुम
यथार्थ की छलनी से
छलनी से होकर
चुन लेते हो ठोस
अंत तक बचा रहा जो।
पर ये सारे अक्षर
एक दिन
रोटी बनकर
फूल उठंेगे
गर्म तवा एक-एक रोटी को
जाँचेगा
बाचेगा
छाँटेगा
बाँटेगा।