Last modified on 24 जुलाई 2024, at 14:14

तुम मुस्कुराना मल्लिका / नीना सिन्हा

तुम मुस्कुराना मल्लिका
क्यूँकि यही इक सुकून की बात थी तुम्हारे समक्ष
जब सभी पगडंडियाँ
इक जंगल में खो गयी थी
और
रास्तों पर बर्फ-सी संवेदनाएँ जम गयी थी
हँसना कि उसके आँच से
शीत पिघले
इक तरुणाई की आभा मुख पर छाये
कि, सूरज भी इस लालिमा को अपना बसेरा समझे
और
झुक कर तुम्हारे पहलू में आ जाये

मुस्कुराना मल्लिका
कि स्याह रातें भी अंत तलक थक जाये
नीलाभ आसमाँ आँखों में विश्राम बन उतर जाये
उषा काल से अर्द्धनिमीलित नयन
और पाश-सा कामनाओं का जाल
इक संतुलन बन चट्टानों पर किसी पुष्प-सा सुदूर में खिल आये

इक वैरागी-सा समय धूप के चिलम फूँक रहा
धुआँ-सी आच्छादित होती है
विस्मृतियाँ
विगत से बेहतर जब आगत लगे
अतीत बोझ बन काँधे से उतर जाये

तब! फिर मुस्कुराना मल्लिका
अपने को वायु सरीखा हल्का जान कर
जब दूर आसमाँ के वितान में
मन सुरमई हो इकसार घुल जाये

तब मुस्कुराना मल्लिका
जीवन को उत्सव मान
गीत के मद्धम बोल बन
किसी प्राचीन मंदिर के ताँबई कलश पर स्थिर रश्मि किरण
सा नृत्य कर

तुम फिर मुस्कुराना
मल्लिका!
आगत का उद्घोष बन!