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तुम मेरी क़िताब हो / विमल कुमार

मैं जानता हूँ
अन्ततः साथ रहेंगी
मेरी कविताएँ मेरे साथ
संभव है,
तन्हाई भी मेरा साथ छोड़ दे
छोड़ तो तुम भी सकती हो
एक दिन मुझे

इसलिए मैं प्रेम करता हूँ
अपनी कविताओं से
जैसी भी हों
कच्ची, पक्की, अनगढ़, कमज़ोर
वे तो नहीं जाएँगी मेरी डायरी से निकलकर बाहर कहीं
धोखा तो नहीं देंगी वह मनुष्यों की तरह
उपेक्षा और बेरूखी भी नहीं दिखाएँगी
उनके साथ वर्षों का एक भरोसा तो है
मेरे लहू से बनी हैं,
बनी हैं मेरी चीत्कारों से
आत्मा की पुकारों से
इसलिए मैं चाहता हूँ
तुम्हें बनाना मैं अपनी एक ख़ूबसूरत कविता
कविता बनकर
तुम रहे सकोगी मेरे पास हर वक़्त
और एक दिन उनके छपने पर
तुम्हें भी मैं देख सकूँगा
एक क़िताब की शक्ल में
और क़िताबें तो दुनिया को बदल देती हैं एक दिन