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तुम लौट आना / आनंद गुप्ता

तुम लौट आना
जैसे किसी स्त्री के गर्भ में
लौटता है नया जीवन
जैसे लौट आती है आवाजें
चट्टानों से टकराकर हर बार
जैसे हर पराजय के बाद
फिर से लौट आती है उम्मीद।

तुम उस तरह मत लौटना
जैसे क्षणिक सुख बिखेर कर
वापस लौट आती है लम्बी उदासी।

तुम लौटना
जैसे गहरे जख्म के बाद
खिलखिलाती हुई
वापस लौट आती है शरीर पर त्वचा
जैसे पतझड़ में टूटी पत्तियाँ
लौट आती है वसंत में
जैसे आंगन में फुदकती शावक चिड़ियाँ
लौट आती है घोंसले में सुरक्षित

तुम लौट आना हर बार
जैसे लम्बी दूरी तय करके
प्रवासी पक्षियाँ
सही रास्ते लौट आती है अपने घर
तुम लौट आना
उन शब्दों की तरह
जिनसे मेरी हर कविता मुक्कमल होती है।