तुम ही तो कहते थे, “सहता हूँ अगणित कटु आघात प्रिये!
बहता रहता है विकल नयन से अविरल सलिल-प्रपात प्रिये!
यह श्लथ अंचल चंचल अलकावलि गोल कपोल लोल लोचन।
यह स्वेद-बिन्दु-क्षालित ललाट पर मृगमद-कुंकुम-गोरोचन।
मन-मधुकर को डँस देता तेरा श्वाँस-सुरभि-संघात प्रिये!
अब कलह-केलि-कम्पित-कदली-सा करो संयमित गात प्रिये!”
आ जीवन के जीवन! विकला बावरिया बरसानें वाली ।
क्या प्राण निकलनें पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥123॥