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तुलना / महेन्द्र भटनागर

जीवन कोई पुस्तक तो नहीं

कि जिसे सोच-समझकर

योजनाबद्ध ढंग से लिखा जाए-रचा जाए !

उसकी विषयवस्तु को

क्रमिक अध्यायों में सावधानी से बाँटा जाए !


स्व-अनुभव से, अभ्यास से

सुंदर व कलात्मक आकार में

ढाला जाए

शैथिल्य और बोझिलता से बचाकर

चमत्कार की चमक से उजाला जाए !


जीवन की कथा

स्वतः बनती-बिगड़ती है

पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है !


कब क्या घटित हो जाए

कब क्या बन सँवर जाए

कब एक झटके में