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तुलसी-गन्ध माँ / योगेन्द्र दत्त शर्मा

लम्बी गीति-रचना 'तुलसी-गन्ध माँ' का एक अंश

सहा माँ ने उम्र-भर
हर दर्द धरती की तरह !

ज़िन्दगी ने जो दिया, करती रही स्वीकार वह
बर्फ़ हो चाहे चुभीला या जला अँगार वह
मान अपना छोड़कर करती रही मनुहार वह
लुटाती ही रही सब पर स्नेह, उच्छल प्यार वह
सब सहा चुपचाप उसने
की नहीं कोई जिरह !

की नहीं कोई शिकायत व्यस्तता की, काम की
थी न चिन्ता या कि इच्छा उसे अपने नाम की
थी समर्पित एक चेरी स्वयं आठों याम की
लिये मन में अनवरत-सी वह उदासी शाम की
अधर पर मुस्कान भर
खिलती रही जैसे सुबह !

स्नेह से भरपूर थी, लेकिन स्वयँ रीती रही
आँसुओं से घाव मन के मौन ही सींती रही
कुछ नहीं उसने कहा, घुटती रही, जीती रही
आपबीती को हवन कर सिर्फ़ जगबीती रही
कभी अपने त्रास की
पूछी नहीं उसने वजह !

सीख ही पाई न ममता तर्क या कोई बहस
सदा आँचल में रहा भीगा हुआ कोई परस
छाँह उसकी बेअसर करती रही भीषण उमस
पर्व-सा मनता रहा उसकी छुअन से हर दिवस
सेज फूलों की सुखद
लगती रही हर नागदह !