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तुलसी / शब्द प्रकाश / धरनीदास

धरनी देखा धरनिमें, भगवन्ता नहि कोय।
तुलसी हुलसी फूलसी, बड भागी नर सोय॥1॥

धरनी वरनी सकै नहि, महिमा तुलसीमाल।
जाते संगीत साधुकी, कटै कर्म को जाल॥2॥

धरनी भेष अलेख है, तुलसी को अधिकार।
भक्त कहावै ताहि छिन, शिर नावै संसार॥3॥

धरनी धनि सो आतमा, माँगहि तुलसीमाल।
व्याधा बहुतै कालको, पल में भयो दयाल॥4॥

कोइ भक्ता कोइ साधुकह, कोइ फकीर कोइ दास।
धरनी सुनि 2 श्रवन सुख, हिये बढत विश्वास॥5॥

धरनी हाथी का चढो, का पदुमिनी-पलंग।
कनक तुला चढ़ि का भयो, चढ़ी न तुलसी अंग॥6॥