तुमने समय को बार-बार पुराने कपड़े की तरह
उतार कर फेंक दिया है
तुम्हारी दुनिया में
काल की घड़ी के काँटे थम गए हैं
तुम अतीत होकर भी अशेष हो
हमारी हर राह पर
हमारी छाया-जैसे सहचर !
तुम न योगियों के रसायन हो,
न देवताओं के सोम
तुम वह घास हो
जो पारिजात और पाटल के
झर जाने के बाद भी
हरी रह जाती है
जो जितने प्यार से पहाड़ों को
बाँहों में समेटती है
उतनी ही ललक से
समतल और रौंदी हुई
भूमि पर बिछ जाती है
(तुलसी जयन्ती : 1969)