तूने
तूने ही तो
जाया है न मुझको
फिर क्यों नहीं है
रंग मेरा
तेरी देह जैसा
तेरे इस शरीर के भीतर
बहुत भीतर
नहीं है न कहीं
मेरे ही रंग रस जैसा
रचा तन
फिर उस देह पर
यह पीली सिर्फ पीली देह
क्यों है मां
और मैं भी
अपना होना
जान लेने से अभी तक
एक मुर्दा व्यूह में ही
क्यों जिये हूँ
जबकि मैंने तो
सीखा ही नहीं
तेरी कूख में रहते
किसी भी ब्यूह में
जा धंसने का सबक
फिर कौन हैं वे
रच गए हैं
व्यूह दर व्यूह
चारों ओर मेरे
इस सूर्य जैसा तो नहीं
कोई मेरा पिता
स्वीकारा ही नहीं जिसने
मुझ जैसे किसी को
एक याचक को
होने का हिस्सा
काट कर देने से पहले तक
तू पांचाली तो नहीं है न मां
कि पति हों पांच
एक हारा हो जुए में
भुजाओं का धनी दूजा
मठोठियां खाए रहा
बगलें ही झांका किया
तीजा धनंजय
और छुटके दो
बळे तो ऊपर से
पर अन्तर-आत्मा तक पिघल
ठर गए
नकुल-सहदेव जैसे
मुझ में
अनवरत बोला किया है जो
उसी को तो निकाल
ला रखा है
आज तेरे सामने
यह अनवरत बोलारू ही मेरी
पपड़ाई हुई
वह प्यास है मां
जिसने मेरे
पूरे भीतर को
किया है झांग
बाहर ही फैंके गया है
और मैंने भी
इस बुदबुदाते फेन को
छीटों से मार देने
अंजुरी भर पानी के लिए
इन ढूहों
धोरों को उलीचा है
पानी तो पाताल में था मां
हाथ आए
मरे घोंघे शीपियां
गळगच्चिये कह-कह गए हैं
तेरी मां तो
नीली थी
यह पीली कैसे हो गई है
बोलती थी
कल-कलती सी
‘राग रग-रग से निसरता था’
वही निरी गूंगी
और तू.....निपट तांबा.....
कहां से
ले आई यह तन
मैं नियोगी तो नहीं
नहीं हूँ न मां
यही तो
तू भी जानती है न
नीलबर्णा थी
दु्रपद की बेटी द्रौपदी
नहीं है न तू
वैसे किसी प्रारम्भ
उपसंहार का
कोई भी कारण
नहीं रे नहीं
मैं पांचाली नहीं हूँ
वरे ही नहीं मैंने पांच
हारते मुझको
फिर तेरे पिता होते
पाप भी नहीं है तू
मेरी कुआंरी उम्र का
जो कह दूं
कोई कायर सूर्य है तेरा पिता
मैं नहीं
वैसे किसी प्रारम्भ
उपसंहार का
कोई एक भी कारण
मैं, मैं तेरी मां हूँ
मैंने ही जाया है तुझे
और तेरा बाप
वह रहा अकेला
एक ही आकाश
पूछ उससे
क्यों नहीं मिलता है
तेरा रंग
मुझ से
पीली क्यों हुई यह देह मेरी?
सुन मेरे दूध से नहाये
बेटे सुन
मैं धरती हूँ न धारती हूँ
फिर फाड़ती हूँ कूख
और जन्म आता है
तू मेरा हमरूप
तेरी आंख में आकाश
तेरा पिता
और तू कहे है
मैं बोलूं.....
बोलते ही बिफर जाऊं तो.....तो.....
सुन मेरे ही अंशी सुन
वह जो धारे है
कब किससे कैसे बोले है
जो बोले भी है कभी
सुने है कौन
कौन कैसे समझे है!
सुलाने को तुझे
सुनाई ही नहीं कभी लोरी
जागता रह कर
सुने तो सुन.....
एक औरत थी
और था
देवों का देव इन्दर
लम्पट हो गया देखा जो
वल्कली सौन्दर्य
लूटा खसोटा राक्षस हो
अतिथि देवता ने
भार्या तो थी
वह मां भी थी किसी की
करती ही क्या वह
पत्थर सिर्फ पत्थर
होकर रह गई अहिल्या
सी जो लिया था
आदमजात राजा
जनक ने भी मुंह
चिचियाकर ही रह गया
पति गौतम
वैसी ही नारी सी
भुभुक्षु पवन के उंचास हाथों
मैं भी तो
लूटी खसोटी गई
मैं जो नीलांजला थी
कंटियल जीभों ने
शिराओं तक खुरच चाटा
फिर हड्डियां भी पिसी
कोई भी नहीं बोला
तेरा पिता भी नहीं
पर जीवेशणा को
किसने चाटा-पीसा है
बता तो.....
बच रही इस रेत भर से
पहले रचा खुद को
फिर इसे धारा
धारे ही रही हूँ
फिर गाभण हुई हूँ
पूरब की किरणें खा
दिशाओं की हवाएं पी
पोशी है कूख
सातों रंग
रचे हैं रेत में
सुन मेरी ममता के
छोटे से बड़े आकाश सुन
रेत के
सारे रचावों का
अकेला एक
पौरुष तू
और तू कहे है
मैं बोलूं.....फिर बिफर जाऊं
नहीं बेटे नहीं
तेरे बाप के चुप से अघा कर
जब भी बिफरी हूँ
मेरा अपना ही
रचाव उजड़ा है
बोलने भर से
हांडी कठौती में दरारें पड़ गई हैं
सर पर छवाया
फूस का छाजन उड़ा है
नंगे आंगने रसोई को
सर पर बैठने के आदी हो गए
इस सूरज के
संपोलों ने उतर कर
सीधे डस लिया है
इसलिए मुझे मत कह
मैं बोलूं बिफर जाऊं
हां जो तेरे भीतर
अनवरत बोले है
जिसने तेरे
पूरे भीतर को
किया है झाग
बाहर ला रखा है
उस उस प्यास को ही ।
करला और तीखी
धूप से जल-जल
होते हुए मेरे कुन्दन
उस प्यास से ही खोद
मेरे रेतीले
वक्षस्थलों
उदरान्तलों को खोद
कलकलती नदी सी
ठहर जाऊंगी मैं
तेरी अंजुरी में
देखेगा तू
मैं अब भी नीलांगना हूँ
मैं तेरी मां हूँ
मई’ 82