तूफान नहीं जानता कि किस-किस के
कितने घर उसने उजाड़े कितनी गिरीं भीतें कच्ची मिट्टी की
तूफान तो बस हरहराते हुए आना
भीतर धंसना और सब कुछ तोड़-फोड़कर
किसी अधपागल की तरह सरे-बाजार अट्टहास करते हुए
गुजर जाना चाहता है।
जाते हुए जो कुछ टूट-फूट हुई
उसे पूरे होने में लगेंगे
कितने दिन, कितने माह-बरस, कितने मनारथ
इसे दूसरे जानें। दूसरे करें इसका
हिसाब-किताब...मीजान।
तूफान को कोई कष्ट नहीं, न कोई अफसो।
कितने गिरे रास्ते पर पेड़ कितने टप्पर-छप्पर?
किस-किस की टीन उड़ी... उड़कर गिरी
सड़क के इस या उस पार?
इससे किसी को खरोंच आई या नहीं
और किसका फट गया माथा...छिल गए जख्म ?
इसका भी कोई हिसाब नहीं तूफान के पास।
तूफान की खासियत यह कि वह बगैर किसी
बही-खाते के आता है
ओर सिर धुनता हुआ
चला जाता है वापस
बगैर किसी बही-खाते के...।
वह तो इस गरमी से अंगारा बनी धरती को
भीतर तक धंसकर
मसकता, मरोड़ता है निर्लज्जता से
गहता है बांह...और सात आसमानों तक उड़ाए लिए चलता है
और अंततः अपने आलिंगन में बांधकर
शीतल करता है काया
और फिर हल्की सी रिम-झिम...
चल पड़ता है शांत पवन।
और तूफान चूंकि कोई तानाशाह नहीं,
बस, तूफान है
इसलिए धरती से उपजकर
अंततः धरती में ही समा जाता है...
कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी के
किसी आविष्ट, गहरे-गहरे मेघमंद्र आलाप की तरह-
कभी हमें उद्बुद्ध कभी यकदम हक्का-बक्का छोड़कर।