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तू क्यों सूली चढ़ा जा रहा, क्या तू कोई ईसा है? / योगेन्द्र दत्त शर्मा

तू क्यों सूली चढ़ा जा रहा, क्या तू कोई ईसा है  ?
यह क्या कम है, कानों में दुनिया उँड़ेलती सीसा है !

लोग तरक्की करते-करते कितने आगे निकल गए,
तू क्यों कहता दौर हमारा गुज़री हुई सदी-सा है ।

कल तक तो वह चेहरा था कश्मीर की घाटी-सा सुन्दर,
अब वह चेहरा चक्रवात में उजड़ा हुआ उड़ीसा है ।

तू उस ईश्वर की तलाश में कहाँ-कहाँ पर भटक रहा,
सच तो ये है, तेरा घर ही क़ाबा और क़लीसा है ।

बिस्मिल्लाह ने शहनाई में कैसा जादू घोल दिया,
फिर बरसों के बाद अचानक ज़ख़्म पुराना टीसा है ।

रौंदे हुए शहर के लोगों के मेले क्या, उत्सव क्या,
रातें पहियों ने कुचली हैं, दिन चक्की ने पीसा है ।

एक हवा का झोंका है वो, तपते हुए मरुथल में,
इस रेतीले महानगर में, उसका नाम नदी-सा है ।