Last modified on 17 जुलाई 2013, at 19:35

तृष्णा / उमा अर्पिता

हँसी-खुशी की
महफिल से दूर
मेरे उदास ख्यालों को
अलाव-सा तापते
क्यों तुम अलगाव
सह रहे हो...?
तुम नहीं जानते--
तुम्हारे वातावरण में मैंने
अपनी आत्मा डाल दी है,
कभी तो तुम उसे अपनी
बाँहों में समेटने का
साहस नहीं कर पाए
और कभी
इतना कसकर पकड़ लिया है, कि
मेरे ख्याल अपारदर्शी हो उठे हैं ।
इनके आर-पार देख पाना तुम्हारे लिए
असंभव हो उठा है...!
कौन जाने मेरी तस्वीर के रंग
आँसुओं में घुले हैं
या फिर बदनसीबी के खून में?
आखिर फिर
क्यों नहीं तुम
इस बदरंग तस्वीर को भूल
आज के
शोख रंग में डूब जाते...?