तेरा पता सुना था उन दुखियों की चीत्कारों में,
तुझे खेलते देखा था, पगलों की मनुहारों में,
अरे मृदुलता की नौका के माँझी, कैसे भूला,
मीठे सपने देख रहा काग़ज की पतवारों में?
सागर ने खोला सदियों से,
देख बधिक का द्वार,
रे अन्तरतम के स्वामी उठ, तेरी हुई पुकार।
रचनाकाल: खण्डवा-१९२६