Last modified on 6 अगस्त 2010, at 21:28

तेरी आंख में हो / हरीश भादानी

तेरी आंख में हो
आ गया है दोष
देखे तो है
पर कहे ही जा रहा है
मैं नहीं हूँ
अब समंदर

देखे तो हैं
मैंने भी रतौंधे
तू शायद दिनौंधा है
फिर प्रज्ञा-चक्षु
क्यों नहीं हुआ तू

यह मैं हूँ मैं जिसे
देखे था तूं
उफनता फेनाता
फिर भी चलती थीं मछलियां
पेट के बल
और मछुआरिन
जला कंदील
सीध देती थी
कि मछुआरा
कश्ती भरे
लौट आए घर

फर्क इतना सा ही है
मैं पहले घहघहाता था
और अब
हांय-हांयता हुंआता हूँ
बेड़े ही क्यों
लश्कर भी निगले हैं

पेट के बल
चलती मछलियों के अब
लग गए है पांव
खड़ी रहती है
अब भी मछुआरिन
जला कंदील
कि तन की नाव पर ही
लिए भारा
मछुआ लौट आए
            
अगस्त’ 80