हे मेरे प्रभु! व्याप्त हो रही है तेरी छवि त्रिभुवन में।
तेरी ही छवि का विकास है कवि की वाणी में मन में॥
माता के नःस्वार्थ नेह में प्रेममयी की माया में।
बालक के कोमल अधरों पर मधुर हास्य की छाया में॥
पतिव्रता नारी के बल में वृद्धों के लोलुप मन में।
होनहार युवकों के निर्मल ब्रह्मचर्यमय यौवन में॥
तृण की लघुता में पर्वत की गर्व भरी गौरवता में।
तेरी ही छवि का विकास है रजनी की नीरवता में॥
ऊषा की चंचल समीर में खेतों में खलियानों में।
गाते हुए गीत सुख दुख के सरल स्वभाव किसानों में॥
श्रमी किंतु निर्धन मजूर की अति छोटी अभिलाषा में।
पति की बाट जोहती बैठी गरीबिनी की आशा में॥
भूख-प्यास से दलित दीन की मर्म-भेदिनी आहों में।
दुखियों के निराश आँसू में प्रेमीजन की राहों में॥
मुग्ध मोर के सरस नृत्य में कोकिल के पंचम स्वर में।
वन-पुष्पों के स्वाभिमान में कलियों के सुंदर घर में॥
निजता की व्याकुलता में औ’ संध्या के संकीर्तन में।
तेरी ही छवि का विकास है सतत परंहित-चिंतन में॥
खोल चंद्र की खिड़की जब तू स्वर्ग-सदन से हँसता है।
पृथ्वी पर नवीन जीवन का नया विकास विकसता है॥
जी में आता है किरनों में घुलकर केवल पल भर में।
बरस पड़ूँ मैं इस पृथ्वी पर विस्तृत शोभा-सागर में॥