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तेरे सतरंगी आंचल पर / हरिवंश प्रभात

तेरे सतरंगी आंचल पर
मैंने जो गीत लिखे हैं
उन्हें तुम गा दो ना
उन्हें तुम गा दो ना।

पावस की पुरवाई छेड़े
यौवन की अमराई में
यादों में सिहरन भर आयी
मौसम की अगुवाई में,
गहरी नदियों से होठों पर
सोये भाग्य हैं मेरे
उन्हें चमका दो ना
उन्हें चमका दो ना।

झरनों की मादक लहरों पर
तेरे स्वर बल खाते
दूर तलक गूँजे रव तेरे
सपने सच हो जाते,
मदिरामय नयनों के नभ में
भरे हैं प्रीत के प्याले
उन्हें छलका दो ना
उन्हें छलका दो ना।
महुआ-मन बौराया-सा है
तन उमड़ा ज्यों सावन घन
व्याकुल फूलों की गंधों का
भटका भौरों सा चितवन,
तेरे बिन मछली की तड़पन
दिल हर जनम सहा है
इसे समझा दो ना
इसे समझा दो ना।

अब तक मिटे न ढाई अक्षर
जो जल पर लिख आये
गिरा नहीं है अभी घरौदा
जो बचपन में भाये,
मन के कोरे आंगन पर
घिर आये क्वार के बादल
उसे बरसा दो ना
उसे बरसा दो ना।