पज्झटिति छन्द-
गिरिजा-वर सौं वरदान पाबि
जन धन बल मान विमान पाबि।
रावन वश में ब्रह्माण्ड लाबि
नहि चलय भूमि पर पैर दाबि॥1॥
सुर असुर यक्ष गन्धर्व जीति
सब थल प्रचारि नव अपन नीति।
छल तदपि राति दिन बनल भीति
मनमे मुनिजन पर नहि प्रतीति॥2॥
तैं चढ़ि विमान लै असुर संग
लागल सबहिक तप करय भंग।
लय लय कर शोनित पाचि अंक
कैलक सबकैं नित दृष्ट तंग॥3॥
ककरो कटाय पुनि जटा केश
कैलक विरूप मुनिजनक भेस।
ई रूप दैत सबकैं कलेश
पहुँचल खलदल भारत प्रदेश॥4॥
प्रति विपिन जतै छल तपः स्थान
सब मे दण्डकवन अति प्रधान।
जहिं ठाँ छल विन्ध्याचलक टूक-
श्रेणी सुरम्य अति ऋष्यमूक।55।
आदिक पर्वत लघु ओ विशाल
युत-विविध गुल्म लतिका-तमाल।
विकसित प्रसून सित पीत-लाल
छल लसित तिलक जनु वनक भाल॥6॥
खगरसित लसित घन-विपट कुंज
मानू मुनिजनकृत तपक पुंज।
बनि मूर्तिमान गिरिवरसरूप
अछि ललित फलित जनहित अनूप॥7॥
पर्वत में वन वन में पहार
शोभा समान भीतर बहार।
सम मृदुल मनोहर जतय सानु
सम सुखद शीतकर तीक्ष्णभानु॥8॥
अगनित अशोक तरु जाहि ठाम
नवदल प्रसून युत अति ललाम।
पीपर पाकरि बट साँखु आम
कटहर जामुन बड़हर लताम॥9॥
नारंगी नेबो नारिकेल
नसपाती सेब बदाम बेल।
पिसता किसमिस अखरोट दाख
आदिक मेवा तरु लाख लाख॥10॥
सब समय फलित अति ललित साख
नन्दन वन मानय जकर धाख।
अनगनित जतय, मुनिजन महान
तरु तरु तर ऋग् यजु साम गान॥11॥
थल थल तृणपल्लव-मय कुटीर
निर्मल निर्झरनिक निकट नीर।
शीतल सुगन्धमय पवन धीर
कूजय कल कोकिल सहित कीर॥12॥
मृगशावक सिंहीशिशु क संग
वन मे विहरै छल अति उमंग।
केसरि करि ओ करिनी करेनु
निर्भय नाना-मृग महिष धेनु॥13॥
सब जन्तु सहोदर जकाँ मेल-
कय मुनि आश्रम में करय खेल।
बकरी ओ बाघ, बटेर बाज
सपनौर साप नर मुनि समाज॥14॥
रहि प्रेम सहित सब एक ठाम
सुख सौं बितबै छल आठ याम।
नहिं चर्च लेश छल द्वन्द्व फन्द
खग मृग विहरै छल अपन छन्द॥15॥
अति सुलभ सहज फल मूल कन्द
लहि, सकल जन्तु छल सदानन्द।
तरु-गुल्म लता फल फूल पात
छवि हरित पीत अरुणावदात॥16॥
जत सुखद दिवस निशि साँझ प्रात
सम - शीत - ताप - वरषा - वसात।
सु्रव सु्रचि अर्धा ओक पश्चपात्र
मौंजी बल्कल युत स्वच्छ गात्र॥17॥
समिधा धृतपात्र पलास दण्ड
राजित आसन पर गत-घमण्ड।
कुश कलितपाणि विलसित त्रिपुण्ड
द्विजगण मण्डित शत हवन-कुण्ड॥18॥
मंजुल मखमण्डप ठाम ठाम
फहराय पताका ध्वज ललाम।
तहिठाम ‘गृत्समद’ नाम एक
मुनि छला जनिक मन सद्विवेक॥19॥
तनिका क्रम सौं सय पुत्र भेल
घर में कन्या नहि जन्म लेल।
पत्नी हुनकरि तैं समय पाबि
कैलन्हि मुनिवर लग विनय आबि॥20॥
“पतिदेव? विना कन्याक गेह
मानू विनु आँखिक मनुजदेह।
कय कोटि यज्ञ व्रत भूमिदान
नहि फल कन्यादानक समान॥21॥
कृपया अपने से करी यत्न
जहि सौं पाबी हम सुतारत्न।
करुणा-कटाक्ष भगवान देथि
लक्ष्मी कन्या भय जन्म लेथि॥22॥
ई काज सुलभ अपनेक साध्य
मुनिजनक मतैं विधि होथि वाध्य।
ई सुनि मुनिवर वर वचन मानि
कय ध्यान जगत कल्याण जानि॥23॥
संकल्प हृदय मे लेल ठानि
गोदुग्ध तथा नव कलश आनि।
लय दूध मन्त्र जपि जपि अनेक
राखल घट में कय सदभिषेक॥24॥
कहलनि पत्नी कैं पुनि बुझाय
आजुक छन सौं दश दिन बिताय।
ई - दूध पीबि जे लेति नारि
धु्रव तनिक कुक्षि वारिधिकुमारि॥25॥
औती मानवतनु दिव्य धारि
देती संसारक विपति टारि।
भेला बाहर ई कथा भाखि
मुनिवर आश्रम में कलश राखि॥26॥
तहि समय अचानक चढ़ि विमान
आयल रावन भय सावधान।
बुझितहि वनगत सब मुनि समाज
कैलनि तहि कालक उचित काज॥27॥
“रिपुओ यदि आबय निज दुआरि
तौं लय शुद्धासन सहित वारि।
उठि पूछी पहिने कुशल छेम
सत्कार करी पुनि सहित-प्रेम॥28॥
ई मन विचारि मुनिजन सुजान
कैलनि स्वागत मिलि सहितमान।
पुछि कुशल कहल द्विज ज्ञानवान
अपनेक योग्य नहि खान पान॥29॥
आसन वा-वासन बसन सेज
सत्कार करू की लय दहेज।
किछु अछि फल मूल अनोन साग
स्वीकार होए तौं हमर भाग॥30॥
होएब हम सब अति धन्य आइ
अपनेक सदा बाजय बधाइ।
तजि स्वर्गक सुख ई वन भदेश
ऐलहुँ की हेतुक सहि कलेश॥31॥
से कहल जाय रजनी-चरेश!
कय कृपा अपन मानस उदेश।
यदि हमरसाध्य भय सकत काज
तौं अवश करब लंकाधिराज!॥32॥
सुनि मुनिक वचन मृदु भुवन भूप
कर दण्डकमण्डल छवि अनूप।
वसुधाधर सौं बढ़ि चढ़ि अडोल
सयगुणित सुधा सौं मधुर बोल॥33॥
कय गुणित धरा सौं अधिक धीर
सातो समुद्र सौं अति गहीर।
प्रजवलित अग्नि सम देखि रूप
किछुकाल मनहि रहि गेल चूप॥34॥
छल चतुर हृदय कैलक विचार
अछि मुनिजन तेजस्वी अपार।
बलसौं कथमपि नहिं सकब जीति
कर्तव्य एतय थिक कूटनीति॥35॥
पुनि सुमिरि शंभुवरदान रूप
बाजल सचिन्त लंकाधिभूप।
“देने छथि हमरा शंभु सत्य
वरदान त्रिलोकी आधिपत्य॥36॥
जीतल हम तीनू लोकपाल
दिकपाल दशो, वश कैल काल।
सुरसिद्ध यज्ञ गन्धर्व-राज
बाँकी छी केवल मुनि-समाज॥37॥
मुनि में अहिठाँ सब छी प्रधान
दय दी हमरा मिलि विजय दान।
अपने सब छी अति शुद्धबुद्ध
तैँ नहि चाही हम करय युद्ध॥38॥
निज निज तनु सौं अपनहि बहाय
किछु किछु शोनित दय देल जाय।
हम पावि त्रिलोकी विजय आइ
कय सत्य शंभुवर भवन जाइ॥39॥
बजलाह बात सुनि मुनिसमाज
“सुनु भुवनजयी रक्षोऽधिराज!।
ई नहिं विज्ञक थिक उचित काज
बुझि पड़य अहाँ तजि देल लाज॥40॥
अथवा अहाँक की देव दोष
अभ्यागत पर नहिं उचित रोष।
भैयो नभगामी दूरदृष्टि
लहि विविध मधुर फल विधिक सृष्टि॥41॥
नहिं आमिष खायब तजय गिद्ध
लोकोक्ति लोक में अछि प्रसिद्ध।
किछु पाबि परक अधिकार शक्ति
होइत अछि दुस्सह अधम व्यक्ति॥42॥
रविकर-प्रताप लहि तुरत लाल
भै जाय तपत अति पथक बाल।
धन पावि करू यश सहित भोग
हरवरक करू नहिं दुरुपयोग॥43॥
मुनिजनक कहू अछि दोष कोन
नहिं जनिक भवन धन रत्न सोन।
बल सौं छल सौं वा अहाँ याचि
तानिका सौं शोनित लेब पाबि॥44॥
तौं कहू कहत की? लोक शिष्ट
होएत अहाँक अहि सौं अनिष्ट।
नहिं किन्तु ताहि दिशि दैत ध्यान
मटिऔलक रावन अपन कान॥45॥
पढ़नहि की होइछ श्रुति पुरान
भय जाय बुद्धि भावी समान।
अभिषेकवला घट केँ उठाय
तहिमे सब सौं शोनित पचाय॥46॥
रखलक, मिश्रित ओ दूध भेल
लय चढ़ि विमान निज भवन गेल।
झट दय मन्दोदरि केँ बजाय
घट दय कहलक सबटा बुझाय॥47॥
थिक हमर विजय घट ई महान
अहिमे शोनित अछि विष समान।
यदि क्यौ एकरा कयलेत पान
छनमे चल जायत तकर प्रान॥48॥
तैं धरू अहाँ एकरा नुकाय
ने फूटय ने क्यौ पीबि जाय।
हम जाइत छी घूमय बहार
कानन समुद्र सुरपुर पहाड़॥49॥
ई कहि लंकापति अति उमंग
लय दिव्य कन्यका विविध संग।
पुष्पक विमान चढ़ि रमन हेतु
नन्दन वन चलला भ्रमण हेतु॥50॥
बीतल वर्षहुँ सौं अधिक काल
मन्दोदरि-मन चिन्ता विशाल।
“पर-नारि संग रमलाह कन्त
अयला नहि, आयल ऋतु बसन्त॥51॥
नित करथि जनिक स्वामी पुछारि
सौभाग्यवती से नारि नारि।
हो पतिक प्रेम तौं नारि धन्य
नहिं तौं जग में जीवन जघन्य॥52॥
यदि कयल कन्त पर-नारि नेह
तौं थिक कलंक ई धारि देह।
धिक थिक पतिआदर बिना जीबि
मरि जायब भल विष घोरि पीबि”॥53॥
मन मे ई प्रन मयसुता ठानि
पतिदत्त धरोहर कलश आनि।
मुनिशोनित कैँ विष तुल्य जानि
सहसा पिउलनि निज मरन मानि॥54॥
लक्ष्मी-आश्रय अभिषिक्त क्षीर
मुनि शोनित मे मिलि बनल हीर।
पिवतहि भय गेल सुगर्भ थीर
अति निर्मल मन्दोदरिशरीर॥55॥
दिन-दिन तन मे कान्तिक विकास
लै लेल कुक्षि मे रमा बास।
सब भेल गर्भ-लक्षण प्रकाश
प्रोषितपतिका-मन भेल त्रास॥56॥
भै गेल सोच सौं हृदय खिन्न
नहिं दिवस चैन नहिं राति निन्न।
की कहत आइ हमरा समाज
सोचय लगली की करी काज॥57॥
कय मृषा तीर्थ-यात्राक ढंग
लय सुधा सयानि चमैनि संग।
चलली विमान चढ़ि विरचि भेश
बुझि परम शान्त नृप जनक देश॥58॥
देखय लगली स्थल घूमि घूमि
अति रम्य निरखि एकान्त भूमि।
तहि ठाम अपन रथ केँ उतारि
झट दै ओ चतुर चमैनि नारि॥59॥
विनु कष्ट कोंखि सौं गर्भ खीचि
शिशु पर सीसी सौं सुधा सीचि।
पेटी में धय पुनि देल गारि
भू-पर ऊपर पुनि सुधा ढारि॥60॥
अपनहु पिउलनि किछु सुधा शेष
भेली मन्दोदरि पूर्व भेष।
छल समय सुखद ऋतुपति बसन्त
मधुमास धवल सुखमा अनन्त॥61॥
तहि ठाम देखि फल फूल अन्न
भेली मन्दोदरि अति प्रसन्न।
देखल सबथल समयानुकूल
तरु गुल्म लतादिक कन्द मूल॥62॥
चम्पा गुलाब बेली अढूल
विकसित सुगन्ध मय विविध फूल।
मजरल जामुन टिकुलल रसाल
बन मे पलास तरु भेल लाल॥63॥
बुझि पड़य बहुत दिन पर सयानि
प्रियतम आगम मन मोद मानि।
बुझि आइ अपन अभिलाष पूर
उपवन देवी कैलनि सिनूर॥64॥
दिशि दिशि सौं कोकिल मधुप कीर
सब आबि सुमन-वन भेल थीर।
जहिना गुणग्राहक रसिक वीर-
भूपति लग हो गुणिगणक भीर॥65॥
लखि भेल मन्दोदरि मन अधीर
पति विरह अनल दगधल शरीर।
निजकोंखिक सन्तति परित्याग-
परिताप बढ़ल दूगुन विराग॥66॥
लंक-अधिरानी घूमि घूमि
छन भरि परेखि वन बाध भूमि।
मिथिला सौं लंका बुझल तुच्छ
जहिना पायस-लग भात छुच्छ॥67॥
मन भरि नहिं सकली दृश्य देखि
अगुताय अनवसर समय लेखि।
संत्यक्त शिशुक रक्षाक हेतु
गौरी गणपति ओ वृषभकेतु॥68॥
मनबैत इष्ट-पद दैत ध्यान
चलली चतुरा चढ़ि वायुयान।
मन मे मिथिलाक रखैत नेह
गेली मन्दोदरि अपन गेह॥69॥
अवतरल अवध मे छला राम
भारत मे उत्सव गाम गाम।
तहि संग कतहु छल जोर सोर
राक्षसक उपद्रव सांझ भोर॥70॥
मिथिलाक विप्र कैलनि विचार
हो शान्त उपद्रव जहि प्रकार।
थिक सम्प्रति से कर्तव्य काज
ऋषिगण भूपति ओ सब समाज॥71॥
मिलि कैल विनिश्चित एक बुद्धि
“हर जोति करथु नृप भूमि शुद्धि”।
बिधि पूर्वक हो पुनि विष्णु-याग
रहि जाय सुरक्षित माथ पाग॥72॥
दैवज्ञ वृन्द आनन्द-मग्न
शास्त्रानुसार शोधल सुलग्न।
साधल सुयत्न सौं इष्ट दण्ड
माधवहित माधव धवल खण्ड॥73॥
दुर्गातिथि सौं शिव-तिथि सुबिद्ध
भूशोधन मे शुभ कहल वृद्ध।
दशमी मे रचि मण्डप-स्तम्भ
विश्वक तिथि मे हो मखारम्भ॥74॥
ई मत सब केँ स्वीकार भेल
बरही बजाय तैय्यार भेल।
हेमक हरीस हीराक फार
जोतीक जौर चानीक तार॥75॥
बुझि याग योग्य परती ललाम
गाड़ल पेटी छल ताहिठाम।
हर मे दू अँड़िया बड़द जोति
धैलनि लागनि मिथिलेश सोति॥76॥
पढ़ि स्वस्ति वचन कह श्री गणेश
लगला जोतय यागक प्रदेश।
लगिचौलनि चास बचाय ठेस
ता भेल शुभद नवमी-प्रवेश॥77॥
गम्भीर सिराउर लागि फार
उखरल पेटी शोभा-अगार।
तहि में राखलि कन्या अनूप
नवजात चकितचित देखि भूप॥78॥
आतप्त कनक सन देह गोर
पाकल-तिलकोरक सदृश ठोर।
करतल छवि लाल गुलाब तूल
तरबादुतिलज्जित कमल फूल॥79॥
विश्वक शोभा कय एक ठाम
विरचल विरंचि जनु छवि ललाम।
छल निर्मिमेष तत जनक दृष्टि
ता भेल गगन सौं सुमन वृष्टि॥80॥
विनु देहक वानी भेल व्यक्त
हे भूप? अहाँ छी परम भक्त।
रहितहु नित निज-कर्तव्य-शक्त
छी भेल कर्मफल सौं विरक्त॥81॥
छी बनल अछैतहुँ तनु विदेह
तैं मानि पितावत सहित नेह।
लक्ष्मी अवतरली स्वयं जाय
होइछ सुकृती कैं सब सहाय॥82॥
नहिं विघ्न बुझू मंगल मनाउ
सकुशल उठाय लै भवन जाउ।
कय जात क्रियादिक सकल कर्म
पुत्री-प्रति जे हो पिताधर्म॥83॥
सम्भव तनु सौं मिथिला महीक
तैं थिकी रमा पुत्री अहींक।
छी धन्य अहाँ राजर्षि-रत्न
ऐली कमला घर बिना यत्न॥84॥
सुनि गगन गिरा लखि रमारूप
भै अति प्रसन्न जनसहित भूप।
द्विजगण के दय धन रत्न गाय
कन्या लय गेला घर उठाय॥85॥
सानन्द सुनयना नृप-पियारि
लय कोर सुतामुख छवि निहारि।
हर्षक समुद्र गेली समाय
निज कुलक देव देवी मनाय॥86॥
पुनि सगर नगर देलनि हकार
ऐली गाइनि गन नृप-अगार।
लगली क्यौ सोहर करय गान
क्यो नाचथि क्यो पुनि देथि तान॥87॥
सब कैं लहठी साड़ी सिनूर
सिर तेल ख्वैंछ भरि भरि मधूर।
अपनहि कर परसथि भै प्रसन्न
रानी धेन भूषण वसन अन्न॥88॥
वन्दी-गन मंगल करथि पाठ
नहिं कहल जाय उत्सवक ठाठ।
मिथिलेश मुदित मण्डप सजाय
निज मान्य विप्रगण कैं बजाय॥89॥
कय जातकर्म, पुनि नाम कर्म
कैलनि विधि पूर्वक मानि धर्म।
द्विजगण पोथी पतरा उचारि
शास्त्रानुसार कहलनि विचारि॥90॥
अवतार सिराउर संग भेल
तैं हेतु हिनक ओ अंग भेल।
‘सीता’ थिक संस्कृत तकर नाम
तैं हेतु उचित थिक ताहि ठाम॥91॥
‘सीता’ हिनकर शुभ आदि नाम
हो जनक हेतु अति पुण्यधाम।
ई कहि देलनि सब शुभाशीश
सुनि मुनिक बचन मिथिला अधीश॥92॥
राखल श्री सीता तनिक नाम
कय गणपति गिरिजा कैं प्रणाम।
भेला हर्षित परिजन समेत
गेला पुरजन निज निज निकेत॥93॥
मिथिला अधिरानी सुदिन मानि
लगली लालन कृति मे सुजानि।
अनुखन तन मन सौं देख रेख
जहि सौं दुलार नहि हो विशेख॥94॥
सवैया-
मायहु सौं बढ़ि भै सतमाय
सनेह सुता ममता उर धारथि।
दै तनु तेल फुलेल सदा
ककबा कर लै सिरकेश समारथि॥
दूध पिआय झुलाय हिड़ोल
एको पल आँखिक ओट न टारथि।
चूमथि ठोर स्वकोर उठाय
चकोर जकाँ मुखचन्द्र निहारथि॥95॥
दोहा-
भेली नयनानन्द सौं-सती सुनयना व्याप्त।
अम्बचरित मे भेल ई-तेसर सर्ग समाप्त॥