मृत्यु-पालने में पालित है जड़ीभूत जग-जीवन,
अटल मृत्यु के बाद अमरता होती प्राप्त सनातन।
मृत्यु वरण कर मृत्यु, मनुज, कर मृत्यु-वन्दना, दर्शन,
निखिल मुक्ति के यज्ञ-कुण्ड में बनो हुताशन पावन।
प्रारम्भिक मृत्यु ही टालती भावी मृत्यु-प्रपीड़न,
और, अमरता वरद-हसत बन करती स्वत्व-समर्पण।
चहो अगर अमरता, तो तुम करो स्वसत्व-समापन,
स्वतन्त्रता का एक मार्ग है, एक त्याग ही साधन।
यज्ञ-कुण्ड में सीता ने होमा अपना कोमल तन,
किन्तु, दूसरे ही क्षण निकलीं सिद्ध वरण हो कुन्दन।
दुराक्रान्त चिन्मय प्रकाश से आत्म-यज्ञ कर भास्कर,
सौर-चक्र में निर्भय चरते तम को चीर निरन्तर।
और, निशा में अगणित तारक-दल का सतत सृजन कर,
देते समुल्लसित अग-जग को रूप, गन्ध, गुण, अक्षर।
यह निसर्ग का नियम चिरन्तन, आत्म-यज्ञ ही निश्चय,
पाश-बद्ध पृथिवी को देगा स्वतन्त्रता का परिचय।
भव को कर आनन्द-सिन्धु की धारा से प्रक्षालित,
आत्म-यज्ञ ही कर देगा निश्चय जन-मन आह्लादित।
मृत्यु-पालने में पालित है जड़ीभूत जग-जीवन,
अटल मृत्यु के बाद अमरता होती प्राप्त सनातन।
(रचना-काल: सितम्बर, 1941। ‘विशाल भारत’, अक्तूबर, 1941 में प्रकाशित।)