सारा जीवन होम हो गया, आदर्शों के नाम।
साँसों पर संकट आया तो, त्याग न आया काम।
जीत सत्य की ही होती है, सबको है विश्वास,
राज किया रावण ने फिर क्यों, वन-वन भटके राम।
स्वेच्छाचारी नर-नारी सब करते हैं सुखभोग,
आदर्शों के आँगन में क्यों, घमासान संग्राम।
दूभर काम सरल हो जाते, देकर सुविधा शुल्क,
पर कानून नियम पर चलकर, फँस जाती क्यों धाम।
अनाचार करने जैसा ही सहना भी है पाप,
ठान यही, भिड़ने वाले क्यों चले गये सुरधाम।
मंच-कला पर कंचन बरसे, काव्य-कला पर धूल,
माँ वाणी के पूजन का क्यों, ऐसा दुष्परिणाम।
आधार छंद-सरसी
विधान-27 मात्रा, 16, 11 पर यति, अंत में गाल