फूल भरा रूमाल बिखेरे
गन्ध भरे पल-छिन
अब भी कभी याद आते हैं
त्यौहारों के दिन
दीवारों पर ऐपन वाला
हाथ अभी भी है
कभी अकेले में हो तो वह
साथ अभी भी है
चुहल-शरारत मीठे लमहे
क्या नकदी क्या ऋण
तैर रहे ईंगुर के अक्षर
उजले दरपन में
गीले पाँव बने हैं अब भी
घर में आँगन में
रीती गागर छोड़ गयी है
तट पर पनिहारिन
अपने मन का बना घरौंदा
ईंटे-गारे से
अभी गया मनिहार लौट कर
देहरी-द्वारे से
चिठ्ठी भेज रही नम आँखें
बीत रहा आश्विन