स्थानांन्तरण से त्रस्त एकान्त
खोजता है निश्चित ठौर
भीतर का कुछ
निकल भागना चाहता
नियत भार उठाने वाले कंधों
और निश्चित दूरी नापने वाले
लम्बे कदमों को छोड
दिन के हर टुकडे को बकरियों की तरह ठेल कर
रात के बाडे में यूँ धकेलना कि अब उनके मिमियानें की आवाज़ें
अवचेतन के गहरे खड्ड से बाहर न आने पाये
पानी छान कर पिया जाता
किन्तु एकान्त को छान
घूंट दो घूंट पीना भी
नहीं होता आसान
समय की छलनी में से स्मृतियों के बारीक कण अनचाहे ही अटक जाते गले में और
एकान्त की सतत् प्रवाही नदी के बीच अनायास
उग आती
जनाकीर्ण नौकाऐं॥