हर कोई वही देखता है
जिस ओर संकेत करती हैं
मेरी अंगुलियाँ
और मैं
उत्तान बाहें फैलाए रह जाती हूँ त्रिभंग
हंसिनी, मयूरी या मृगी
इन्हें क्या देखना
ये तो नहीं जानतीं स्वयं को
कौतुक से देखती रहतीं हैं मुझे
जब मैं डिखाती हूँ
इनसे भी अदभुत्त इनकी ही भंगिमा
अप्सराएँ आती हैं मेरी सभा में
सीखने वह दिव्य संचालन
प्रेम प्रारम्भ में
दो देहों का नृत्य ही तो है ।