गँवई गाँव के मनुख त्रिलोचन सीधे-सादे
खुरदुरी मुट्ठी में अपना आकाश बाँधे
धरती के उस जनपद से हैं प्यार लुटाते
परिचित और अपरिचित सबको गले लगाते
चले आ रहे आँखों में क्या भर लाए हैं
नगई के टोले से अभी-अभी आए हैं ।
कविता उनको क्या दे सकती, क्या देती है
सपनों के ढीले तारों को कस देती है ।
अपने दुख का स्वागत करती हँस देती है
नरम आँच झुलसाती नहीं पका देती है।
भाषा की भट्ठी में ज्यों पकता हो कुंदन
ध्वनि में क्रिया क्रिया में बल ले खड़े त्रिलोचन ।