घड़ी की यात्रा
एक वृताकार पथ मेरे कमरे का
दिन की पगडंडियां
रात के तलवे में उगा लाती हैं
कई रातों की पीर
बदलती करवटों संग
बदलता है मन का रंग।
शाम की देहरी पर
रख आती हूं रोज
आस का दीपक
नींदों के नाम।
जागते-जागते
थक गये हैं ख्वाब
पलंग गोल
वक्त चौकोर।
बस एक पल ऐसा
कि भूल जाऊं सब
कि सो जाऊं गहरी नींद
बाबा की असहजता
मां का अवसाद
भाई की प्रतिबद्धता।
बस एक वो रात
पलकों में चुभती चिन्दियाँ जब
मुक्त होकर बह उठें
और शोकगीतों की नदी
बहा ले जाए लफ्जों की कारीगरी।
कौन है वो
जिसकी पैरों की छाप
मिलती है मेरे उल्टे पैरों से
रेत बिछाती हूं
गीत उड़ाती हूं।