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थूं जाणै है / इरशाद अज़ीज़

थूं कांई बावळो हुयग्यो
जिको आखी-आखी रात
कवितावां लिखै-पढै
बगत री कीमत कांई हुवै
थनैं ठाह है?

अरे बावळा!
बो जमानो गयो
जद साहित्य मांय लोग
अेक तपस्या अर इबादत री भांत
डूब जावता हा,
म्हारी मान कै
थोड़ो बरसै अर घणो धावड़ै
गयोड़ो बगत पाछो नीं बावड़ै
थोड़ो लिख, घणो हाको कर
देवणियां नैं सलाम ठोक
जिका आंरी निजरां में रैसी
बै ईज मौज करसी
काम करणिया करता रैसी
जोड़-तोड़ सूं ई काम होसी
बावळा है बै
जिका साहित्य नैं
समदर कैवै
इण मांय डूबणो मतलब मरणो
जे तमगा लगाय‘र जीवणो है
अर इमरत पीवणो है
तो राई नैं पहाड़ बणा
ढोल तद तांई घुरायां जा
जद तांई कै फाट नीं जावै
घणो डरा
कमती डर
अर मौके रो फायदो उठा
पढणिया पढसी
लिखणिया लिखसी
मौज करणिया मौज करसी
साहित्य इयां ईज तो
आगै बधसी!