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थोड़ा सा यहीं.. / सुरेन्द्र डी सोनी

तुम इसे किसी कविता की संगति में लिखी
एक और कविता समझो
या तुम्हारे घर छोड़कर जाते समय
मेरे होठों पर नाचते विस्मय का
आधा-अधूरा रूपान्तरण...

मैंने तब भी यही कहा था
आज भी यही कहती हूँ
और आगे भी यही कहूँगी
कि हाँ पुरुष
जब तुम चले जाओगे
तो थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे मेरे पास

सच ही
रह जाओगे थोड़ा-सा...

क्या तुम्हें भी
यह एहसास होगा कभी
कि तुम किसी के लिए थोड़े-से रह गए हो

इस वहम में ही सही
कि एहसासों के लिए
तुम्हारे दिल में जगह होगी
मेरा यह जीवन तो कट ही जाएगा

एक स्त्री होने के नाते
यही सिखाया गया है मुझे
कि पुरुष चाहे चला जाए कितनी ही दूर
थोड़ा-सा तो उसे
रखना ही है तुझे अपने पास
कि अभिशप्त होकर
सब-कुछ खोकर जब वह लौटे
तो फिर से सीख सके
चलना सिर उठाकर वह

पुरुष
जब तुम चले जाओगे.. !