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दंगा / श्रीविलास सिंह

न जाने कब
गरमा उठती है पुरवैया,
धुप की मखमली उजास
न जाने कब
बदल जाती है
आग की पगडंडी में
उबलने लगती है नदी
पिघल कर बह उठते है किनारे
उत्तप्त हो लावा की तरह।
लहू की एक अग्निरेखा
प्रवेश कर जाती है
आत्मा की गहराइयों तक।

और तब जब
सारा उन्माद थम जाता है
बदल जाता है बदबूदार कीचड़ में।
नरमुंडों के ढेर पर बैठे हम
गिन रहे होते है लाशें
पीट रहे होते हैं छातियाँ।
पर
मार-काट का सारा शोर
थम जाने के बाद भी
थर्रा रहे कान के परदों पर
हथेलियाँ रख लेने से
नहीं थमता
भीतर का कोलाहल,
मात्र संवेदना के आसुओं से
नहीं मिटता अंतर्दाह।
तलवारों पर से
रक्त पोंछ लेने भर से
नहीं भर जाते
छाती के घाव।