मंदिर मस्जिद दंभ बढ़ाते, दंभ मिटाता शौचालय।
निर्विकार हो जाता मानव, जब भी आता शौचालय।
प्रश्न सुलझते कहीं नहीं जो, उलझे के उलझे रहते,
ध्यानावस्थित होते-होते, सब सुलझाता शौचालय।
ऑफिस में घर में मित्रों में, चाहे जितनी हो किचकिच,
लेकिन शांति-निकेतन जैसा, सबको भाता शौचालय।
धर्मालय बनवाने वाला, करता अपना विज्ञापन,
पूजनीय वह जनता के हित, जो बनवाता शौचालय।
घर के बाहर मेला-ठेला, नगरों या बाज़ारों में,
भारी संकट छा जाता जब, व्यक्ति न पाता शौचालय।
आज धर्म के नाम हो रहा, है अधर्म इतना भीषण,
धर्मालय वीभत्स लग रहे, शुचिता लाता शौचालय।
शंका समाधान करने का, धाम एक ही है मित्रों,
निर्विवाद निष्पक्ष सर्व-प्रिय, जो कहलाता शौचालय।
कोलाहल कोने-कोने में, कविता हो कैसे नीरव,
समाधान कर हर उलझन का, सर्जन कराता शौचालय।
आधार छंद-लावणी
विधान-30 मात्रा, 16, 14 पर यति, अंत में वाचिक गा