दाँतों में रह गयी कथा ज्यों प्राणों में व्यथा। क्या स्रोत, कब कहाँ उद्गम- हम भूल गये पूछना या हम से उतना धीरज न बना शब्दों को भी हमने पूरा न मथा। रत्नाकर था, पर वहीं हलाहल भी तो था- हम डरे रहे। नहीं तो-आह!-अमृत क्या वहाँ न था?