पहाड़ बनते देखा है कभी
या नदी बनते देखी है
नक्षत्र में सितारे जुडते देखे हैं कभी
या जंगल का सृजन होते देखा है
दुखों के पहाड़ भी
अनदेखे खड़े हो जाते है
भावना की नदी भी
बिन बताए अनचाहे बह जाती है
तने का फैलाव
और लदे फल का झुकाव
तो सब देखते हैं
पर मिट्टी के दबाव में
बीज का अंकुरण
और जड़ का संतुलन
कोई नहीं देखता
जनता के हालात तो दिख जाते हैं
पर भीड़ के हालात
राजतंत्र को भी नहीं दिखता
भीड़ को बनते नहीं
बल्कि भीड़ को दिशाहीन होते
सब देखते हैं
पहाड़ को उजड़ते
नदी को सूखते-भटकते
उल्कापिंडो को गिरते और भष्म होते
सबने देखा है
सच तो ये है कि
सारी जीवंत उत्पत्ति
दबाव में आकर उभरती है
चाहे कोख में शिशु हो
या ज़मीन के नीचे पड़े
बीज का अंकुरण
सृजन दबाव का विस्तार है
पर दबाव को कोई
देखना नहीं चाहता