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दरवाज़ों का बन्द रहना / प्रज्ञा रावत

जाने क्यों मन लगातार
उन जगहों को तलाश रहा है
जहाँ प्यार भरा आँचल हो
बैठे एक दूसरे में पसरे हम
दुलार के क्षणों में भूल जाएँ
बेरहम शोर, भड़कीले दृश्य
अकेलेपन से दूर बैठें एक साथ
हटा दें ये बेवजह पनपती
अदृश्य दीवारें

एक बार फिर हमारे मोहल्लों में
ताऊ चाची अम्मा बिट्टो-गुड्डो
माँग कर मुन्नी मौसी से ढोलक
कर दें ज़मीन और आसमान एक
शक्कर ना हो और हम पिएँ
गुड़ की फटी चाय

एक बार फिर सुबह-सुबह
कोई नन्हीं बिटिया
हाथ में कटोरी लिए माँगने आए
आधा कटोरी बेसन

देखो! मैंने तो अपने दरवाज़े
कब से खुले छोडे़ हैं

दरवाज़ों का इतना बन्द रहना ही
तो सबसे बड़ा अपशकुन है।