Last modified on 12 मई 2009, at 12:55

दरिंदा / भवानीप्रसाद मिश्र

दरिंदा
आदमी की आवाज़ में
बोला

स्वागत में मैंने
अपना दरवाज़ा
खोला

और दरवाज़ा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई

मानवता
थोड़ी बहुत जितनी भी थी
ढेर हो गई !