हरे दूब पर गिरी
शबनम की बूंदों से,
टकराती है रेशमी किरणें,
और दूर आकाश पर,
ओझिल हो जाते हैं,
सितारों के काफिले,
चांद अपनी सेना समेत,
लेता है इजाज़त,
और सूरज के घोडों की टापें सुनकर,
फिज़ा की नींद टूटती है,
अपने अपने सपनों से जागते हैं,
आदमी, चिडिया,
खरगोश, भेडिया,
और....अपने पेट की अन्ताडियों में,
बजते हुए नगाडे सुनते हैं,
और फिर शुरू होती है,
अपनी अपनी भूख से लड़ते जीवों की -
दिनचर्या
कोई शिकारी तो कोई शिकार,
कोई किसी का ग्रास तो कोई किसी का ग्रास,
सांसों से रिश्ता टूट सा जाता है,
पेट से ऊपर कोई क्या सोचे,
सिमट कर रह जाता है, सारा दायरा,
आदमी और चिडिया का,
खरगोश और भेडिया का,
पेट और पेट के नीचे की भूख तक
क्या जिंदा रहना ही काफी है ???
डूबते उजालों में,
मैं अक्सर सुना करता था ये सवाल,
मगर कर देता था अनसुना,
और मूँद लेता था पलकें,
रात फिर घिरती है, और गिरती है,
हरे दूब पर फिर कोई शबनम,
इन गहरे सन्नाटों में कभी,
किसी दर्द की सुगबुगाहट,
सुना करता था मैं,
वो दर्द जो मुझमे जिंदा था कभी,
मर गया शायद ...