झील का चंचल अचंचल
कर गया घायल
कूल दुहरा आँख का काजल ।
मन्त्र के मारे बिचारे
वृक्ष संज्ञाहीन
लग रहा मौसम तुम्हारे
विरह में ग़मगीन
कमर तक साभार झुककर
हाँफ़ती, पस भर
छाँह प्यासी पी रही है जल ।
घाटियों में बज रही है
दर्द की झंकार
थिर मुकुर में काँपती है
दूधिया मनुहार
बुझ रहा नीलाभ अम्बर
छन्द-सा सुन्दर
गल रहा है वायदा पल-पल ।