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दर्द की पहचान / गोबिन्द प्रसाद


कभी तुम्हारा चेहरा आईना था
जिसकी लकीरों का तुमुलनाद
दु:खों के पहाड़ों-सा
मेरी भीतरी नदी के थपेड़ों से
टकराकर गलता था
...दर्द,रिस रिस कर होता जाता था
दीप्त दिनो-दिन
आज भी वही चेहरा है
वही लकीरें हैं ...
वही दु:ख हैं ...
वही पहाड़ हैं ।...दोस्त;

नहीं है तो बस वह भीतरी नदी
जिसने दु:ख के पहाड़ों को गला दिया था
दर्द को दीप्ति दी थी

तुम्हारा चेहरा अब भी
आईना है ...दोस्त ।
मेरी नदी सूख चुकी है !