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दर्द पलता रहा / विद्या विन्दु सिंह

दर्द पलता रहा चोट खाते रहे,
पर अधर ये मेरे मुस्कराते रहे।

मेरी कोशिश अंधेरों से लड़ने की थी,
स्नेह भरकर दिये में जलाते रहे।

पाँव घायल हमारे हुए भी तो क्या,
सारा जीवन उन्हें हम छिपाते रहे।

दर्द की हिमशिलाएँ पिघलती नहीं,
हम स्वयं को शिला सी बनाते रहे।

माँगते ही रहे खैर रिश्तों की हम,
सारे रिश्ते तो नजरें चुराते रहे।

अपने साये के पीछे नहीं हम चले,
धूप की ओर राहें बढ़ाते रहे।

वक्त हमको हमेशा ही छलता रहा,
पर उसे आइना हम दिखाते रहे।

वो जो पत्थर हमारे बदन पर लगे,
वार सहकर उन्हें हम हराते रहे।