दलाईलामा लगातार हंसते हुए
सम्बोधित कर रहे थे
एक बड़ी जनसभा !
दुभाषिया बहुत गम्भीर था ।
उसको हंसने की फुर्सत ही नहीं थी !
अँग्रेज़ी के जाल में सावधानी से
पकड़ रहा था तिब्बती भाषा की तितलियाँ
जो लामा के फूल जैसे होंठों से उड़ती-उड़ती
कभी तिब्बती बच्चों के कान पर बैठ जाती थीं
कभी उनकी माँओ के चमकीले परिधानों पर
जो उनकी शादी के जोड़े थे शायद !
(गिने-चुने आयोजनों पर निकलते थे,
फिर भी किनारों से फटने लगे थे !
वैसे, चमक उन पर
खूब महीन ज़री के काम की
अभी बरकरार थी
बूढ़ी आँखों में उम्मीद की इक टिमक जितनी !)
आर्य सत्य समझा रहे थे दलाई लामा !
कुछ कहते-कहते जो हाथ उठाया
उनकी बाईं बाँह पर मुझको दीखा
बचपन में कभी पड़ा चेचक का टीका : ऐकिक नियम के सवालों के
‘थेयरफोर’ की शकल का ।
और फिर सहसा ही कौंधा —
‘अरे-अरे, यह ऐसी बातें करने वाला
इसी लोक का है, इस युग का है और
आदमी है !’
मेरे बिल्कुल सामने
प्रवचन-मग्न बाबा के कन्धों पर बैठे
इस गुलथुल बच्चे की तरह कभी
गुटुर-गुटुर दूध पिया होगा उन्होंने
खुद दुधपिलाई उठाकर,
खुद पोंछ ली होगी नाक कभी स्वेटर से
माँ को कहीं काम में मग्न पाकर !
क्या जानते हैं हम तिब्बत के बारे में
दलाई, राहुल साँकृत्यायन और रेनपोचे, मानेस्ट्री,
चाउमीन, सस्ते स्वेटर-चप्पल, चीन, बरफ़,
खोई आँखें, भोले चेहरे और वफादार कुत्ते !
आर्य सत्य क्या करता होगा
चिन्दी-चिन्दी बिखरे जीवन के
अनार्य सत्यों का ?
सच्चाई की भी क्या होती है श्रेणियाँ ?
अलग-अलग होती है जातियाँ
सच्चाई की भी ?
ऊपर परम सत्य,
नीचे फिर और क्षुद्र सच्चाइयाँ :
भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी, मोह-क्रूरता,
प्रेम और नफ़रत
सचमुच क्या होते हैं ये सत्य क्षुद्रतर ?
दलाई, आप ही बताएँ
ऊँची-नीची होती हैं क्या
सत्य-मेखलाएँ
जैसे पर्वत-शृँखलाएँ ?
मैं तो किसी छोटे-से सच की
गहरी गुफ़ा में रहूँगी,
कभी-कभी मिलने आऊँगी, दलाई तो
बाकी बड़े सत्य तब ही समझूँगी !
लीजिए, अब पढ़िए इसी कविता का अँग्रेज़ी में अनुवाद
Anamika
DALAI LAMA
The Dalai Lama continues to laugh
addressing
a large audience.
The interpreter is super-serious
has no time for laughter
The English was like a net
the Tibetan words butterflies,
flew from the flower-petal lips of the Dalai Lama
sometimes to sit on the ears of the Tibetan kids
sometimes on the gold-flecked robes,
maybe the wedding dresses
of the Tibetan women
taken out only on special occasions
but worn away at the hems
this bit of sparkle left
like the trace of light in aged eyes.
The Dalai Lama was expounding
the Four Noble Truths of Buddhism
He raised his arm and
like three little dots of ‘therefore’
there were the marks of childhood vaccination
peeping through his ochre robe.
They whispered:
Aha, someone is talking about such high principles
but is from this very world
this very epoch
and he’s just a man.
Right in front of me, rapt, a grandfather
on his shoulder a chubby little boy and his gurgling bottle
wiping his running nose
on grandpa’s sweater —
He must have been like that —
the Dalai Lama
What do we know of Tibet —
Rahul Sanknityayan or Rinpoches
monasteries and chow mein
cheap sweaters and sandals, China,
snow, lost eyes, round faces and faithful Lhasa Apso pups.
How do those noble truths
connect with
such random bits,
the ignoble truths of life?
Does truth too have hierarchies?
A caste system? —
Brahmin truths at the top
and then the Shudra truths at the bottom?
Hunger and
thirst
heat and cold
attachment and cruelties
Love and hate —
are these truths really lower?
Dalai Lama, you tell me, please:
if the truth is like these mountain ranges —
high and low.
I prefer living in the deep cave of a small truth
occasionally coming to you
to learn the nobler truths of life.
Translation: Arlene Zide and Anamika